दो गावों की कहानी है औघड़। गांव मे जिस तरह से जातिय भेदभाव देखने को मिलता है, उसे लेखक ने बखूबी अंजाम दिया है, जिसमें लेखक जाति की जड़ को तलाशते हुए कहता है कि हिंदुस्तान में ऊंची जाति के बारे में पता करना तो आसान है लेकिन नीची जाति की खोज आज भी जारी है। साथ ही लेखक ने प्रशासन के क्रियाकलापों का बहुत ही निर्ममतापूर्वक उजागर किया है। जिसे दरोगा के किरदार से समझाने की कोशिश की है। लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर भी जमकर हमला बोला है।मीडिया को लोकतंत्र में चौथा स्तम्भ बोला जाता है परंतु वर्तमान परिदृश्य में वह भी कॉरपोरेट घरानों और राजनीतिज्ञों के हाथ का टट्टु बनकर रह गया है। साथ ही लेखक ने औघड़ के ज़रिए सामंतवादी मानसिकता को पूरी तरह से चुनौती देने का प्रयास किया है। अन्ततः मैं यही कहना चाहूंगा कि ‘औघड़’ मात्र मलखानपुर गांव की कहानी नहीं बल्कि हिंदुस्तान के हर एक गांव की कहानी है।